Friday, June 25, 2010

मैं आजकल



(Akshay Kumar jha)

आज कल थोड़ी उदासी सी छाई है...ज़िंदगी में मानो उबासी सी छाई है

अपनो के भरोसे बैठे थे...इसलिए ज़िंदगी के रंग पर काली स्याही सी छाई है

मर-मर के मानो रोज़ जी रहा हूं...इसलिए आंखों में जैसे रूलाई सी छाई है

सीना फट रहा है....आंखें रो रहीं हैं...लेकिन होठों पे ख़ामोशी सी छाई है...

फटे मन से...फटे मन से....अपनी फटेहाली का हाल क्या बताऊं मेरे दोस्त

ज़िंदगी रुक सी गई है और चारो ओर बदहवासी सी छाई है....

कि क्या कहूं... आज कल थोड़ी उदासी सी छाई है....

Tuesday, June 8, 2010

सुहानी शाम में ऊंघता भारत !

(Akshay Kumar jha)

बात सिर्फ़ मेट्रो में रह हे लोगों की नहीं बल्कि बात उन कस्बों की भी है जहां लोग सुबह से शाम तक रोज़ी के जुगाड़ में लगे रहते है... शाम होते ही पूरा भारत मानो नशे की आगोश में सोने को बेताब हो जाता है... कोई दिन भर कि थकावट की बात करता है तो कोई आज कुछ नहीं किया इस वजह से परेशान है... उपाय कुल मिलाकर बोतल से गलास का मिलाप ही होता है... कानों में मानो ठंडक सी पड़ जाती है जब अंगूर की बेटी लालपरी शीशे के गलास में अपनी गुनगुने आवाज़ के साथ उतरती है... और ऊपर से आजकल इतनी गर्मी है तो बर्फ़ का दो टुकड़ा गलास में पड़ जाए तो क्या बात है...बड़े शहरों में तो मानो शराब के ठेके के पास रोज़ दशहरा मनाया जा रहा हो... बक़यादा पुलिस की देखरेख में एक लंबी लाइन लगती है...क्या छोटा क्या बड़ा, क्या रिक्शेवाला और क्या मेनेजर साहब सब एक ही धक्के का मज़ा ले रहे होते हैं...जल्दी-जल्दी ठेके से काम निपटा कर कस्बे के लोग भुंजा बनवा लेते है तो मेट्रो के लोग चिप्स का मज़ा लेते हैं... पानी, गलास, बर्फ़ और हां सिगरेट भूलने वाले को फिर से बाज़ार आना पड़ेगा तो वो तो भूल ही नहीं सकते... इसी बीच शायद ही वो गाना किसी को याद आता हो कि वो शाम भी अजीब थी और ये शाम भी अजीब है... हां वाकई वो शाम अजीब थी और आजकल की शाम तो बिलकुल अजीब होती है... सबसे बड़ा फर्क ये है कि वो शाम में हम शाम का मज़ा लेते थे और इस शाम में हम ऊंघते रहने में अपने आप को मस्त मानते हैं...भारत में सबसे ज़्यादा शराब बेचने वाला राज्य छत्तीसगढ़ है... वहां तो मेले का नाम ही शराब के ठेका होता है...शायद दवा दुकान खुलने से पहले बार खुल जाया करता है... है न मज़े की बात...8 बजे सुबह से ही पौआ, बच्चा, अध्धा और बोतल की गूंज आस पास के माहौल में सुनाई देने लगती है, तो कर्नाटक के खुलेपन की बात ही निराली है... ठेके पर गए पौआ लिया वहीं खोला गलास मिल जाएगा कुछ हलका सा खाने का ले लिया और बस खड़े खड़े ही लगा लिया..तो मुंबई में तो खुलेपन की हद है कोई टेनशन नहीं है कैसे भी लगाना चाहे लगा सकते हैं... पहले हफ्ते में एक बार अगर कोई पीता था तो एक-आद बार हरिवंश रायबच्चन को याद ज़रूर कर लिया करता था... उनकी मधुशाला वाकई नशे को बढ़ाने में आग में घी का काम करती थी... ख़ास करके वो लाइन कि शेख कहां तुलना हो सकती मज़हीद की मदिरालय से, चिर विधवा है मज़हीद तेरी सदा सुहागन मधुशाला...लेकिन अब तो कस्बों में भोजपूरी, बार में अंग्रेज़ी और मेरे जैसे रूम में बंद होकर दारू पीने वाले को एफ़एम से ही संतोष करना पड़ता है...सुहानी शाम ढलने के बाद जब धीरे धीरे काली रात शाम को अपने आगोश में लेती है कि उससे पहले ही भारत का जवान, प्रौढ और आने वाला कल नशे की गिरफ़त में होता है... लाल परी अब अपना कमाल दिखाना शुरु कर देती है.. कहीं रंजिश, कही मौहब्बत तो कहीं मुखियागिरी झाड़ते लोग दिखाई देने लगेते है... मेट्रो में हाल थोड़ा अलग होता है... तेज़ रफ़्तार गाड़ी, डिस्को में थिरकने से ज़्यादा संभलते पैर और वेटर का कहना कि सर आख़िरी ऑर्डर... इन सब के परे हमारे जैसे लोग फोन पर अपनी सेटिंग करने मे लगते रहते है... कोई दो पैक मारकर ऐसे सो जाता है कि उसके खराटे से आप उसके ऑफिस का माहौल समझ सकते हैं... तो किसी को एक पौआ से मन नहीं भरता और वो दूसरे के जुगाड़ में लग जाता है... हां सड़क रास्ते पर अब जब रात के दस बज गए तो दूसरा माहौल देखने को मिल जाएगा...कही झगड़ा कहीं लड़ाई तो कहीं किसी ने गाड़ी ठोक दी... ये तो है हाल हमारे और आपके शहर और कस्बों की... तो आप बताए की शाम होने के बाद आप क्या करते हैं ऊंघते हैं या फिर शाम को जीते हैं.... चलो जैसा है, मैं भी कोई दूध का धुला नहीं हूं... वैसे भी एक शराबी ही दूसरे शराबी की बात और हालात दोनों समझ सकता है.... जाते जाते... हरिवंश अंकल के दो पंक्तियां सुना जाता हूं.... "कि एक बरस में एक बार ही जलती है होली की ज्वाला एक बार ही लगती बाज़ी...जलते दीपो की माला... किंतू दुनिया वालों आ मदिरालय में देखो दिन में होली रात दशहरा रोज़ मनाती मधुशाला.... Cherrrrrrrrrrrrrrrrrrrrs.